Sunday 11 May 2014

ज़िन्दगी जीना....

ज़िन्दगी की
तह गुज़रे
तो कुछ यूँ लगा
साँस लेना ही यहाँ जीना नहीं है
जागना, सोना, खाना, पीना
यही सब नियमवार
जीना नहीं है

यूँही
कटते दिन रात
सुबह वही
रोज़ की तरहा आने वाली
शाम उदास
रोयीं गुमसुम सी जाने वाली
रात भर ताकना
घर के सोये लोगो को
उठकर दरवाज़े तक जाना
खिड़कियों से निहारना बाहर का
फैला सन्नाटा
शान्त आसमां और
चिल्लाते झींगुरों को सुनना
यूँ जागना और
जागते रहना तो
जीना नहीं है

रोज़ तरकारी काटना
और यूँही दो पहर
तरकारी काटते हुए
साँसे भरना,
लम्बी उदास बोझल
साँसे भरना नीरस लगता है

जीवन क्या यूँही है
एक नियम सा,
एक तार पर लटकते रहना
साँस लेते हुए बस

नहीं ……..

दर्द में रहते हुए
जागना, सोना
दिन रात शामों और
सुबह महसूस करते हुए
हर पहर कि पीङा सहते हुए
रोज़ दर्द को बढ़ते और
फिर घटते हुए, लड़ते हुए
थोड़ा जीते रहने के लिये
रोज़ बहुत मरते हुए
संघर्ष करते हुए दिन जीना
क्या जीवन जीना है ??

सिर्फ
साँस लेना जीवन नहीं
हर साँस को
महसूस कर उसकी
क़ीमत चुकाते हुए
जीना जीवन…….है क्या???……….

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