Friday 25 April 2014

वक़्त के मिसरे
बिगड़ते गये और
तुम न चाहते हुए भी
उन गड़बड़ाते समीकरणों में
अपनी ताह ढूढ़ते रहे

तुम्हारी
चाह बढ़ती गयी
इतनी की मुझ में से
मुझे खत्म करने लगी

मैं डरती हूँ
खुद के ख़त्म होने से
अपने खोने से
बड़ी मुश्किल से खुद को पाया है

इसलिए
अब तुम रहोगे
या मैं
तय कर लो
तुम चले जाओ
ख़ुशी से
नहीं तो मुझे
छोड़ जाना होगा तुम्हें

अपने को पा कर
खोना नहीं है मुझे
इसकी 
क़ीमत चुकायी है मैंने

तुम
मेरे लिए नही हो
ये तुम भी जानते हो
जो लेना था मुझसे
तुम ले चुके
अब अगर
फिर मंशा रखते हो तो
मुझे माफ़ करो
बस चले जाओ

मैं खुद में
खुद संग रहना चाहती हूँ
बिना तुम्हारे

हाँ……..
सच ……बिना तुम्हारे…

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