Sunday 2 February 2014

कोई नहीं है
फिर भी
कुछ क़रीब लगता है
मेरे ख्यालों में
किसी का
दख़ल अज़ीब लगता है
बंद आँखों से
नींद रूठी है कब से
ख़ुली आँखों में
कोई सपना मचलता है

कैसे होने लगा है ये
मैं कई दिनों से
सोच में हूँ
कैसे कम होने लगा
तन्हाई का धुआँ
कैसे कमज़ोर पड़ने लगे
दर्द के दरख्त
कैसे अब शोर करने लगे है
वो वक़्त के साथ
चुप्पी से उगते झड़ते
ख्याल ………..

ये क्या हुआ है
मन को
सवाल तो ऐसे
कई है
मैं रोज़ पूछती हूँ और
फिर ख़ुद ही चुप्पी
पकड़ लेती हूँ
जानती हूँ वजह
और जान कर 
अनजान भी हूँ
शायद ......

मैं बीच सफ़र में
ठिकाना तलाश रही हूँ........

1 comment:

  1. बीच सफ़र में ठीकाना ...
    ये कुछ अलग है यार . इस पर मैं कुछ लिखूंगा !

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