Tuesday 14 January 2014

ज़िन्दगी ने उजालों में भी
सदा अँधेरे ही दिखाये
काले सायें यूँ छाये कि
उम्रगुजारी को सफों पर
उतारने के लिए अब
उजाले की चाह नहीं लगती
अँधेरे और उसकी काली
स्याही दर्द के साथ उठती है और
अपनी छवि को अल्फ़ाज़ों में ढ़ाल
मुझे नज़मे थमा जाती है
मैं हैरान नहीं हूँ
क्यूँकि ये
उजालों के दोष है
अपने से रोशन वो
किसी को नहीं देख पता
उसे ख़ाक कर देता है, जैसे
मेरे हिस्से की धूप उसने
खीज़ कर ख़ाक कर डाली और
मेरे लिए अँधेरा छोड़ दिया
मैंने भी स्वीकार किया
अब ज़िन्दगी के उजले
सफ़ेद रंग से मेरा कोई
वास्ता नहीं
मुझे अब रातों में ही जीना है
मेरा सूरज अब मेरे साथ नहीं

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