लोग क्यूँ लिखते है .....इसके सभी के हिसाब से अलग अलग मायने है जैसे उन्होंने ज़िन्दगी मांगी...उसे जीया और चाहा उसे उसी तरह से अपने लेखन में उतारा ....
मैं क्यूँ लिखती हूँ क्यूंकि मैं जीना चाहती हूँ और लेखन से अच्छा जीने का कोई बहाना नहीं ....मुझे समझना कई बार मुश्किल हो जाता है और उन हालात में मैं सिर्फ इतना ही कहूँगी की मुझे ज्यादा न सोचो बस.....पढ़ो....यही आसां है.....क्यूंकि मेरा लेखन मुझ-सा है....
Thursday 10 October 2013
बीती रातों के
चंद कतरन
बिखरे है
आज फलक पर
लगता है जैसे
पंछी है
दिन दोपहरी में
उड़ते छिपते
ठोर तलाशते
घरो में झाँकते
तान मिलाते
बैर नापते
रास्ता पाते
दिन निकाल देते है
शाम ढले
चले आते है
मिलने एक सार में
कतरन से
आवरण बन
ओढ़ लेते है रात ....
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