Wednesday 28 August 2013

उबासी लेते दिन
आँखों से पानी झरते है
गर्म सी हथेली है कुछ
टूटे बदन सी आह भरते है
रोज़ मेरे लिए जागते
थक गए शायद
थोडा आराम चाहते हैं
कभी मौज़ मस्ती से
महीनों गुज़ारा था
घूरते हुए शक्ल मेरी
फिर कैलेंडर ताकते हैं
सोचा तो था तुम्हें लम्बी
छुट्टियाँ दे दूँ मगर
रातों की अर्ज़ियाँ
कब से पेंडिंग पड़ी थीं
वो मंज़ूर करनी पड़ीं
अब दिन भर सुस्ती
रहती है हवाओं में
दिन जमाहियाँ ही भरता
रहता है सरे आम
मैं उसके मुँह पर
हाथ लगा उसे जगाये रखती हूँ.....

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