Monday 26 August 2013

लग रहा मन के
चौराहे पर मेला
उलझनों ने
भाव बढ़ा रखे है
कौन क्या ख़रीदे
और कैसे बैचे

झूले
झूलते बीते कल
चाट पकोड़े
खाते शक के बीज
तमाशे
देखने की लाईन में
लगे है वहम मेरे
आगे के किस्से हटे
तो उनको पास मिले
सर्कस के दीवाने है
कई सवाल
जवाब इन की भीड़ से डर
किनारे तलाश रहे है
राते नाचती है
बेधड़क
दिन पैसे लूटा रहा है ....बेशर्म है
शामों का पता नहीं
निकली ही नहीं
शायद घर से ....घरेलू है बहुत
बीते पल झगड़ रहे है
रंग बिरंगे रंगों की दुकान पर
अरे .....न लड़ो क्या करोगे
अब रंगों का
आज मेरा हँसता ही नहीं
जा बैठा क्यूँ फिर
ठिठोली मण्डली में
सब उसे घुर रहे है
चल दिया क्या करता .....
चस्पा कर रखा है
हर गली हर मोड़ पर
तुम्हारा नाम .....
बच कर निकलती यादे
रोने लगती है ……
मिटाती आंसुओ से
तुम्हारा नाम
पर निशां है की
जाते ही नहीं ……
बिना चमक और
रौशनी का ये कैसा मेला
तम्बू गाड़े है
ज़ेहन में कीले कर
और इतना भार लिये
फिरती हूँ .....मैं

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