Sunday 25 August 2013

सोचते हुए
जब चाहूँ लिखना
कागज कलम
हाथ में लिए
बस रेखाए 
खीच पाती हूँ
कैसे वो उतार पाऊं
जो मन में 
हिलोरे ले रहा है
शब्द नहीं मिलते 
मुझे ......
किस तरह 
बतलाऊ सोच की 
लहरें कितनी 
तेज़ी से मन
की दीवारों से 
टकराती है
दीवारे छिल जाती है
रिसने लगती है
उन पर जमा
वक़्त का चूना
झडने लगता है
कमज़ोर होने लगी है
अब ये दीवारे
डरती हूँ
कहीं ये गिर न जाये
कैसे बचाऊ में अपने
मन की चार दीवारी को
जिससे मैंने 
बाहरी दिखावट से
खुद को बचाए रखा है
अपना लूँ क्या
शब्दों का विस्तार
चाहती है सोच पर
मैं नहीं ....
दीवारों , मरीयादाओ 
से परे नहीं
मैं संकुचित सोच
अपने हाशिये में सही
सबसे पीछे
दुनियादारी से दूर सही
मैं आधुनिकता में
पिछड़ी सही
मैं .....मैं सही …

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