Tuesday 6 August 2013

ज़िन्दगी के पलों का भी
अगर अकाउंट होता तो
ब्याज उनके हिस्से में आता
या मेरे हिस्से में.....
कैसे बटवारा करते.....
कई बार सोचा
उम्मीदों का
फिक्स्ड डिपॉजिट करा दूँ...
कुछ सालों तक बनी रहेगी
ना टूटेंगी ना बिखरेंगी
बढ़ कर काम ही आयेंगी....
पर ज्यों-ज्यों उम्मीदें
हमने जमा करी
उनके रेट बढ़ते गये.....
एक अदना चाहत का बांड ख़रीदा.....
वो भी रिश्ते के बाज़ार के
भावों तक आते-आते व्यर्थ हो गया
उसकी कम्पनी ही धोखा दे गयी...
अब सोच लिया
कोई अकाउंट ही नहीं रखना....
एक दिन ज़िन्दगी खर्चनी है बस....
यही खर्च लें बहुत है.....

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