Wednesday 28 August 2013

उबासी लेते दिन
आँखों से पानी झरते है
गर्म सी हथेली है कुछ
टूटे बदन सी आह भरते है
रोज़ मेरे लिए जागते
थक गए शायद
थोडा आराम चाहते हैं
कभी मौज़ मस्ती से
महीनों गुज़ारा था
घूरते हुए शक्ल मेरी
फिर कैलेंडर ताकते हैं
सोचा तो था तुम्हें लम्बी
छुट्टियाँ दे दूँ मगर
रातों की अर्ज़ियाँ
कब से पेंडिंग पड़ी थीं
वो मंज़ूर करनी पड़ीं
अब दिन भर सुस्ती
रहती है हवाओं में
दिन जमाहियाँ ही भरता
रहता है सरे आम
मैं उसके मुँह पर
हाथ लगा उसे जगाये रखती हूँ.....

Tuesday 27 August 2013

पुर्जे पुर्जे उड़ रहे थे
पार उफ़क़ के ……….
तुमने हाथ झटक
कदम पलट
अलविदा जो कहा……..
तिनका तिनका बिखर
रहा था मन
सारे तार टूट गये
धडकनों के …….
कानो के परदे
जल उठे
सन्नाटे की गूंज से…..
अश्कों के समंदर ने
तेज़ उफान के साथ
मेरी आवाज़ का गला
घोट दिया……
डर कर शब्द भाग खड़े हुए
हाथों में टुकड़े थे
हमारी तस्वीर के
जिसको दो हिस्सों में बाँट
तुमने मुझे ज़िन्दगी से
अलग कर दिया
कितने ही और टुकड़े किये थे तुमने
हमारी बाकी तस्वीरो के .......
इतने की मैं
मैं दोनों हाथों में
समेटी थी फिर भी ....
पुर्जे पुर्जे उड़ रहे थे
पार उफ़क़ के .......

Monday 26 August 2013

लग रहा मन के
चौराहे पर मेला
उलझनों ने
भाव बढ़ा रखे है
कौन क्या ख़रीदे
और कैसे बैचे

झूले
झूलते बीते कल
चाट पकोड़े
खाते शक के बीज
तमाशे
देखने की लाईन में
लगे है वहम मेरे
आगे के किस्से हटे
तो उनको पास मिले
सर्कस के दीवाने है
कई सवाल
जवाब इन की भीड़ से डर
किनारे तलाश रहे है
राते नाचती है
बेधड़क
दिन पैसे लूटा रहा है ....बेशर्म है
शामों का पता नहीं
निकली ही नहीं
शायद घर से ....घरेलू है बहुत
बीते पल झगड़ रहे है
रंग बिरंगे रंगों की दुकान पर
अरे .....न लड़ो क्या करोगे
अब रंगों का
आज मेरा हँसता ही नहीं
जा बैठा क्यूँ फिर
ठिठोली मण्डली में
सब उसे घुर रहे है
चल दिया क्या करता .....
चस्पा कर रखा है
हर गली हर मोड़ पर
तुम्हारा नाम .....
बच कर निकलती यादे
रोने लगती है ……
मिटाती आंसुओ से
तुम्हारा नाम
पर निशां है की
जाते ही नहीं ……
बिना चमक और
रौशनी का ये कैसा मेला
तम्बू गाड़े है
ज़ेहन में कीले कर
और इतना भार लिये
फिरती हूँ .....मैं

Sunday 25 August 2013

आज 
और कल में
गुज़र रही है 
ज़िन्दगी
आज कल को 
नहीं थामता
कल पीछा नहीं
छोड़ता
रोज़ की लडाई
दोनों में से 
कोई भी नहीं हारता

आज 
भी कल को 
ताकती तारीखे
बीते लम्हों के 
निशां तलाशती है
उन एहसासों के 
मायने
आज हर रात 
तराशती है

कल 
में आज का 
निशां नहीं था
भ्रम था पर 
यकीं नहीं था
कल पल पल 
साथ रहता यही
जो ढुढती है
गायब बस वही

सुन कल 
तुझ से ज़िन्दगी 
बंधी है अब
आज संग 
मिल जा
रहना दिल के
कौने में कहीं
कल को मेरा 
आज संभाल लेगा
और आने वाला
कल भी गुजार देगा
मैं सह लुंगी 
समय की धार को
कल की डोर से 
आज कल भी 
पार लगा देगा…..
सोचते हुए
जब चाहूँ लिखना
कागज कलम
हाथ में लिए
बस रेखाए 
खीच पाती हूँ
कैसे वो उतार पाऊं
जो मन में 
हिलोरे ले रहा है
शब्द नहीं मिलते 
मुझे ......
किस तरह 
बतलाऊ सोच की 
लहरें कितनी 
तेज़ी से मन
की दीवारों से 
टकराती है
दीवारे छिल जाती है
रिसने लगती है
उन पर जमा
वक़्त का चूना
झडने लगता है
कमज़ोर होने लगी है
अब ये दीवारे
डरती हूँ
कहीं ये गिर न जाये
कैसे बचाऊ में अपने
मन की चार दीवारी को
जिससे मैंने 
बाहरी दिखावट से
खुद को बचाए रखा है
अपना लूँ क्या
शब्दों का विस्तार
चाहती है सोच पर
मैं नहीं ....
दीवारों , मरीयादाओ 
से परे नहीं
मैं संकुचित सोच
अपने हाशिये में सही
सबसे पीछे
दुनियादारी से दूर सही
मैं आधुनिकता में
पिछड़ी सही
मैं .....मैं सही …

Friday 23 August 2013

परेशां हूँ 
मैं तुमसे
क्यूँ चली आती हो 
बिन बुलाये
हर वक़्त ...बिना वक़्त
सर पर सवार 
साथ साथ
कितने सवाल है 
तुम्हारे .....
कहाँ से लाती हो 
सबके बीच में भी
तुम चुप नहीं होती
मुझे घेरे रखती हो
तुम पर किसी का 
जोर नहीं
क्या तुम्हारा 
कोई घर नहीं
जाओ मुझे 
मुझसा रहने दो
बेपरवाह मुझे बेहने दो
मुझे नहीं टोकना
ना मुझे रोकना
मैं अपने आप से 
मिलना चाहती हूँ
तुमसे दूर
बहुत दूर जाना चाहती हूँ
ख़ामोशी नाम है तो
खामोश रहा करो
अपने नाम का कुछ तो 
लिहाज किया करो
क्यूँ अपना साम्राज्य 
फैलाया है
मुझे कमज़ोर समझ तुम 
अपना हुकुम 
ना सुनाओ
मैं तन्हा जरुर हूँ 
पर बेचारी नहीं
तुम मुझे ना सताओ 
जाओ कोई
और दुखी मन 
तलाशों
मैं तुम से परेशा हूँ
जाओ यहाँ ना आओ

Tuesday 20 August 2013

मुझ में कुछ
टुटा चुभ रहा
दिल खाली हुआ
बस गूंज रहा
हाथ रख
संभालू इसे
चुप करू .....थपथपी लगा
बहला रही .....मान जा
कुछ नहीं हुआ
एक खिलौना था
बस वो टूट गया
दुनिया में कितने
खिलाडी
उनमे से तुझ से भी
कोई खेल गया
दस्तूर
यही है शायद
पुराना दफ़न ....
नया लाया गया
तू चीख चिल्ला
पुकारता रह....
कानों पर पर्दा
लोहे का लगा
दिल है तू
बस धडक
और धड़का कर बस.......
मौन हूँ ढलती शाम सी

घुटती हूँ बंद साँस सी .....


ये पल बहुत कठिन लग रहा

रो दूँ टूटते बांध सी .......

Monday 19 August 2013

रखे थे
कुछ फूल जब डायरी में
उस संग रखे
तुम्हारे उस पल की
सारी बातें, बेचैनी और
वो दिन भी
वो सब
उन्हीं पन्नों के बीच पड़े है
उन पन्नो को छोड़ मैं
शेष पन्नो पर
लिखती हूँ कभी-कभी
नहीं चाहती
उन पन्नों से याद का
एक कतरा भी
इस हवा में घुल सके
फूल तो सिकुड़ गये
पर बाकी सब
वैसे ही कैद है उसमें
गुज़रा वक़्त जैसे रुक कर
सिमट गया पन्नो में
बिना हाथों की छुअन से गुज़रे
न धूप लगी तन की
न मन से गीला हो सका
कैसे इस परिवर्तन को
बदलने से रोक लूँ मैं
अभी जो सिमटा है वो
कल पुर्ज़ा-पुर्ज़ा झड़ जायेगा
राख़ बचेगी बस.......
अभिनय कर तो लूँ
पर कच्ची हूँ
माँ पकड़ ही लेती है छुपाये गए
झूठे हाव भाव...
चुप रह कर सिर्फ सर हिला कर
उनकी बातों का जवाब देना
छत पर घंटों अकेले बिताना
रात भर जागना
और सुबह लाल आँखों से
माँ से कहना-
कुछ नहीं कल गर्मी बहुत थी
नींद नहीं आयी...
माँ ने भी कुछ न कह
बस पास बिठा कर कहा
चाय पियो आराम मिलेगा
वो तो समझ गयी...
काश मैं भी वो समझूं
जो वो मुझसे रोज़ न कहते हुए भी
अक्सर कह देती है
समझती हूँ माँ...
बस ये दिल नहीं समझता
इसे समझा दो.....माँ !!!!

Saturday 17 August 2013

दरख़्तों से छुपा-छुपी खेलता हुआ
वो तीखी धूप का एक टुकड़ा
मेरे कमरे तक आने को बेचैन
हवा ज्यों तेज़ हो जाती
वो ताक कर मुझे
वापस लौट जाता
इतना रौशन है वो आज कि
उसके ताकने भर से
अँधेरे से बंद कमरे की
आंखें उसकी चमक से
तुरन्त खुल जाती हैं
बहुत नींद में रहता है कमरा
आंखें मिचमिचाता है
कुछ देर तक यूँही देख
फिर आँखें बंद कर लेता है
हम्म ....मुझे लग रहा है
आज धूप का ये टुकड़ा
बारिश के बाद नहाया हुआ
मस्ती में है इसलिए
खेल रहा है शायद
खेलते रहो....तुम दोनों
मैं भी देखूं
कौन मारता है बाज़ी ....

Friday 9 August 2013

दर्द की भाषा नहीं होती शायद
जिसमे महसूस हो वही दर्द -ए -बयां होता है ....

Tuesday 6 August 2013

ज़िन्दगी के पलों का भी
अगर अकाउंट होता तो
ब्याज उनके हिस्से में आता
या मेरे हिस्से में.....
कैसे बटवारा करते.....
कई बार सोचा
उम्मीदों का
फिक्स्ड डिपॉजिट करा दूँ...
कुछ सालों तक बनी रहेगी
ना टूटेंगी ना बिखरेंगी
बढ़ कर काम ही आयेंगी....
पर ज्यों-ज्यों उम्मीदें
हमने जमा करी
उनके रेट बढ़ते गये.....
एक अदना चाहत का बांड ख़रीदा.....
वो भी रिश्ते के बाज़ार के
भावों तक आते-आते व्यर्थ हो गया
उसकी कम्पनी ही धोखा दे गयी...
अब सोच लिया
कोई अकाउंट ही नहीं रखना....
एक दिन ज़िन्दगी खर्चनी है बस....
यही खर्च लें बहुत है.....